Friday, February 03, 2012

कई बार ...

आखों से अपनी कई बार देखा है ,
कई बार
उठ कर चलते हुए , गिरकर उसे
उस रास्ते पर चलते उसे
इस रास्ते पर ठहर सुस्ताते हुए
हाफ्ते थकते रुकते , कई बार
कई बार , भागते हुए
देखा है , अपनी ही आखों से ,
कई बार ....
सफ़र है या मंजिल
पड़ाव थे या जहन से गिरे पत्ते ...
सब को पीछे छोड़ते हुए
कभी बारिश में भीगते खड़े हुए
कई बार ...देखा है ...बस ऐसे ही...कई बार ...
और आज ...
देख रहा हू, पर कह नहीं सकता
अंत है या आगाज़ , किसी या उसी सफ़र का
उसे अपनों के द्वारा जलाते हुए ...
देखा है ...
कई बार...पर आज ..शायद ...आखिर बार ...जलते जलाते देखा है ...
-तुषार