Wednesday, June 03, 2009

ये रात अकेली लगती है ...

ये रात अकेली लगती है ,
वो चाँद तन्हा जगता है ;

न कोई अपना मिलता है ,
न कोई पराया दीखता है ;

वो दिन मैं चेहरे लड़ते है ,
और रात में डर सा लगता है ;

वो कहीं बिछडा जाता है ,
यह हाथ खाली रहता है ;

वो ऊचे मकान में जीता है ,
कहीं घर खाली बैठा है ;

यह आसमान को छुता है ,
बस तारो से बातें करता है ;

वो सर्द ईमारत में हँसता है ,
मौसम से अछुता रहता है ;

वोह दिनभर भागता रहता है ,
और बस इंतज़ार में जीता है ;

वो रोज़ कुछ पाता है ,
और ख़ुद खोता लगता है ;

कहाँ अब ख़ुद से मिलता है ,
कहाँ ख़ुद को जानता है ;

कुछ अधूरे सपनो को रोता है ,
और ज़िन्दगी से शिकायत करता है ;

ये रात अकेली लगती है ,
वो चाँद तन्हा जगता है ;
-तुषार

4 comments:

  1. Anonymous4:05 PM

    Very Nice!!!

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  2. Bahut bahut acha likha hai...really liked

    वोह दिनभर भागता रहता है ,
    और बस इंतज़ार में जीता है ;

    वो रोज़ कुछ पाता है ,
    और ख़ुद खोता लगता है; wah !!!

    par itni bebasi mein rehna acha nahi ...kya kehte ho :)

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  3. This comment has been removed by the author.

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  4. Anonymous1:45 PM

    Nice... I liked it...really well written
    -Yukti

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