ये रात अकेली लगती है ,
वो चाँद तन्हा जगता है ;
न कोई अपना मिलता है ,
न कोई पराया दीखता है ;
वो दिन मैं चेहरे लड़ते है ,
और रात में डर सा लगता है ;
वो कहीं बिछडा जाता है ,
यह हाथ खाली रहता है ;
वो ऊचे मकान में जीता है ,
कहीं घर खाली बैठा है ;
यह आसमान को छुता है ,
बस तारो से बातें करता है ;
वो सर्द ईमारत में हँसता है ,
मौसम से अछुता रहता है ;
वोह दिनभर भागता रहता है ,
और बस इंतज़ार में जीता है ;
वो रोज़ कुछ पाता है ,
और ख़ुद खोता लगता है ;
कहाँ अब ख़ुद से मिलता है ,
कहाँ ख़ुद को जानता है ;
कुछ अधूरे सपनो को रोता है ,
और ज़िन्दगी से शिकायत करता है ;
ये रात अकेली लगती है ,
वो चाँद तन्हा जगता है ;
-तुषार
Very Nice!!!
ReplyDeleteBahut bahut acha likha hai...really liked
ReplyDeleteवोह दिनभर भागता रहता है ,
और बस इंतज़ार में जीता है ;
वो रोज़ कुछ पाता है ,
और ख़ुद खोता लगता है; wah !!!
par itni bebasi mein rehna acha nahi ...kya kehte ho :)
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ReplyDeleteNice... I liked it...really well written
ReplyDelete-Yukti