Monday, May 18, 2009

...पर...

वो ढलक गया अपने एक एहसास सा ,
न मेरा रहा, न ही हो सका पराया सा ,
पर जाना अब बादल क्यों बरसता है,
पर क्यों नहीं ये बादल ठहराता है ?

वो पत्ती सूख गई गुलदस्ते मैं,
वो ख़ुद न रहा, रहा बस कमरों मैं,
पर क्या कोई ऐसे ज़मीन से बिछडा है ?
पर क्या कुछ कही माँ से छूटा है ?

वो सपना आखों मैं ही रहा तो क्या ?
वो तस्वीर को तस्सुवर न मिला तो क्या ?
पर ज़िन्दगी की उससे एक चाह तो है ,
पर उससे मिलने, पाने ही राह तो है ।

वो रिश्ता तो है पर कुछ बदला सा है ,
वो मुस्कुरा के कुछ मचला तो है ,
पर चाह से पाना ही तो बस नहीं जीवन है ,
पर माना बदले रंगों मैं भी ज़िन्दगी होती है ।
-तुषार

1 comment:

  1. good one..
    woh dhalak gaya ek ehsaas sa..
    nice thaught..

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