वो ढलक गया अपने एक एहसास सा ,
न मेरा रहा, न ही हो सका पराया सा ,
पर जाना अब बादल क्यों बरसता है,
पर क्यों नहीं ये बादल ठहराता है ?
वो पत्ती सूख गई गुलदस्ते मैं,
वो ख़ुद न रहा, रहा बस कमरों मैं,
पर क्या कोई ऐसे ज़मीन से बिछडा है ?
पर क्या कुछ कही माँ से छूटा है ?
वो सपना आखों मैं ही रहा तो क्या ?
वो तस्वीर को तस्सुवर न मिला तो क्या ?
पर ज़िन्दगी की उससे एक चाह तो है ,
पर उससे मिलने, पाने ही राह तो है ।
वो रिश्ता तो है पर कुछ बदला सा है ,
वो मुस्कुरा के कुछ मचला तो है ,
पर चाह से पाना ही तो बस नहीं जीवन है ,
पर माना बदले रंगों मैं भी ज़िन्दगी होती है ।
-तुषार
good one..
ReplyDeletewoh dhalak gaya ek ehsaas sa..
nice thaught..