खुदगर्ज़ समाज का पालक, एक इंसान हूँ
मैं
!
कैद कर रखी है कई जान पिंजरों में,
खुद की स्वतंत्रता के लिए चीखता रहा हूँ
मैं
!
कितना कुछ बटोर लिया छोड़ जाने के लिए,
आगे पीढ़ी के खाने में जहर घोलता रहा हूँ
मैं
!
जंगल से गाँव , गाँव से शहर ; लम्बा है सफर,
बर्फ पिघला, अपनी जीत की गर्मी में जल रहा हूँ
मैं
!
राशन तोलता , रिश्ते नापता; हर कुछ आँकता ,
आदम क्या , भगवान का अनुक्रम रखता
रहा हूँ
मैं
!
-कबीर (तुषार)
My Shadow by Tushar Sharma- 'Kabir' is licensed under a Creative Commons Attribution 3.0 Unported License.
Based on a work at www.myshadewithshadow.blogspot.com.
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