मैं जब मुतासिर हो गया खुद से ही ,
देखो लोग सूरज से जलने लगे है !
वो अक्श था निहगों में गुलाब ही तरह ,
न जाने क्यों काँटों से अश्र गिरने लगे है !
ता उम्र मशरूफ़ रहा खुदा बनाने में उन्हें ,
वो काफ़िर आज जनाज़े में थकने लगे है !
हर कोई नाटक देखो कर रहा है यहाँ ,
अच्छे बुरे के दायरे मिटने लगे है !
-कबीर (तुषार)
My Shadow by Tushar Sharma- 'Kabir' is licensed under a Creative Commons Attribution 3.0 Unported License.
Based on a work at www.myshadewithshadow.blogspot.com.
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