वक़्त रुका ज़माने से , ज़माना चल रहा !!
कितने मौसम साथ बीते साथ बिताये !
तेरी याद के पन्नो में मेरा ज़िक्र न रहा !!
मन सोचता नहीं, दिल कुछ कहता नहीं !!
कुछ खोया नहीं मैं बस खोया-खोया रहा !!
ढूंढता रहा उससे मंदिर-मस्जिद की भीड़ में !
वो जो बच्चों के साथ बाहर भूखा बैठा रहा !!
आज चार दीवारों में उन्मुक्ता से कैद हूँ !
सब से मिलके भी मेरा अपना यथार्थ रहा !!
-कबीर (तुषार )
Based on a work at www.myshadewithshadow.blogspot.com.
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