कहने के लिए मिसरे दर-दर ढूंढता फिरता हूँ
हो जाएगी मुक़मल ग़ज़ल ही है , ज़िन्दगी तो नहीं !
चलते चलते यूही थका लेता है खुद को नादान ,
क्या क्या खोने पर रोता है , बस अपनी मौत पे रोता नहीं !
जैसे देखता है खुदा को: प्यार से , डर से , बहाने से;
कायनात में बसी रूह उसकी देखता क्यों नहीं !
वो जाते जाते कुछ कह जाता, आखिरी यह एहसान कर जाता ?
उसकी ख़ामोशी के बोझ के साथ हँसता हूँ , रोया जाता नहीं !
-कबीर(तुषार)
My Shadow by Tushar Sharma- 'Kabir' is licensed under a Creative Commons Attribution 3.0 Unported License.
Based on a work at www.myshadewithshadow.blogspot.com.
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