Wednesday, July 21, 2010

...सपना...

क्या खलिश , पता नहीं क्या हैरानी फिरती है;
सपनो में हूँ रहता , ज़िन्दगी हकीक़त सी लगती है ,

खवाइश आसमान तक फैली है , धुंद ज़रा सी ठहरी है;
कहाँ बादल घुमड़े है , और कहाँ बूँद सी भिखरी है,

रास्ते चुप चाप राह पर चलते है , मंजिल पीछे बैठी है;
सुकून है कुछ दर्द का, कहीं बर्फ आग से पिघली है ,

कुछ किरने पानी पर सोती है , गुलाबी सी रंगीनी है,
चाँद अभी पका नहीं, चांदनी अभी बोनी है

-तुषार