Friday, June 18, 2021

बदल...

एक नयी कभी पुरानी सी,
ढूंढता रहा हूँ उस तलाश को,
पाके उसे खुश था पल दो पल ,
फिर आँखों के कायदे गए बदल। 

देख लेता हूँ कभी कभी,
उन रुकी हुई तस्वीरों को,
जाने कैसे वो भी देखो  पीली हो गयी,
जैसे वक़्त के दामन गए बदल। 

पढ़ लेता हूँ आज भी,
उन खण्डरों की कहानी को,
लड़ रहे है शायद खुद से ही,
शहर और गाँव दोनों के आदमी गए बदल। 

ज़िन्दगी घड़ी बन रही है,
घंटो में बाँट दिया है हिस्सों को,
मशीन सा होता जा रहा हूँ ,
उन्मुक्ता के दायरे है गए बदल। 

-कबीर (तुषार)
Creative Commons License
My Shadow by Tushar Sharma- 'Kabir' is licensed under a Creative Commons Attribution 3.0 Unported License.
Based on a work at www.myshadewithshadow.blogspot.com.

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